
पत्थर बोलते हैं, सुनने वाला चाहिए... जी हाँ! बस कोई सुनने वाला चाहिए। इस साल हम आज़ादी कि ६०वीं सालगिरह मना रहे हैं। बीते ६० साल पर काफी कुछ लिखा जा रहा है। आलोक मोहन नायक ने इसे अलग से महसूस किया है।
हर आह पर पत्थर चटक जाते हैं...
यह लाल किला हमारी
आज़ादी का प्रतीक ही तो है
इसी के पत्थरों में हमने
आज़ादी का पहला प्रतिबिम्ब देखा था.
इसी से उतर कर आज़ादी हम तक आयी थी
नेहरू ने आजाद भारत कि डोर हमें यहीं थमाई थी
और हमने सोचा था, कि
इसी डोर पर चल कर विकास हम तक आएगा
हमारी आंखों में दुःख के आंसू नहीं होंगे
सुन्दर सुहाने अपने सपने होंगे
यहीं से कहा गया था जय जवान जय किसान
गरीबी हटाओ का नारा भी तो यहीं से बुलंद हुआ था
यहाँ से ही किसी ने सामाजिक समरसता कि बातें कही
तो किसी ने सामाजिक न्याय की
हमें यहीं से सपना दिखाया गया था इक्कीसवीं सदी में ले चलने का
वैसे तो हर प्रधानमंत्री का सपना होता है कि लाल किले की प्राचीर से बोले
कुछ के पुरे हुए कुछ के टूट गए...
लेकिन हम हर बार ही बहुत पीछे छूट गए...
बुज़ुर्ग बताते हैं:
पहले यहाँ लोग खुद-ब-खुद चल कर आते थे
उनके कंधों पर उनके अपने नज़र आते थे
अब तो बुलाये हुए कुछ मेहमान से दिखते हैं
उनसे ज़्यादा तो उनकी चौकसी में तैनात जवान नज़र आते हैं
दूर बहुत दूर...बुलेट प्रूफ़ शीशे में,
हमारे प्रधानमंत्री कुछ लिखा हुआ सा बोलते हैं, और
अब तो स्कूली बच्चे ही तालियाँ पीटते हैं
हमें याद है ६० साल पहले
हमसे इसी जगह कहा गया था...
कि अब नीला आकाश तुम्हारा होगा, और
हमने समझा था, कि
अब किसी का दादा बिना दवाई के नहीं मरेगा
माँ हर रोज़ घर में खाना बनाएगी
चाचू को नौकरी मिल जायेगी
मुन्ना स्चूल जाया करेगा
मुन्नी अब बोझ नहीं समझी जायेगी
लेकिन आज़ादी के ये सपने देखते देखते
आँखें पथरा सी गयीं हैं
आज़ादी के चटख रंग धुंधला से गए हैं
हमरी ना मानो तो इन लाल पत्थरों से पूछ लो
जो 60 साल से कुछ कहते तो नहीं
पर, आह पर
चटक ज़रूर जाते हैं.
हर आह पर पत्थर चटक जाते हैं...
यह लाल किला हमारी
आज़ादी का प्रतीक ही तो है
इसी के पत्थरों में हमने
आज़ादी का पहला प्रतिबिम्ब देखा था.
इसी से उतर कर आज़ादी हम तक आयी थी
नेहरू ने आजाद भारत कि डोर हमें यहीं थमाई थी
और हमने सोचा था, कि
इसी डोर पर चल कर विकास हम तक आएगा
हमारी आंखों में दुःख के आंसू नहीं होंगे
सुन्दर सुहाने अपने सपने होंगे
यहीं से कहा गया था जय जवान जय किसान
गरीबी हटाओ का नारा भी तो यहीं से बुलंद हुआ था
यहाँ से ही किसी ने सामाजिक समरसता कि बातें कही
तो किसी ने सामाजिक न्याय की
हमें यहीं से सपना दिखाया गया था इक्कीसवीं सदी में ले चलने का
वैसे तो हर प्रधानमंत्री का सपना होता है कि लाल किले की प्राचीर से बोले
कुछ के पुरे हुए कुछ के टूट गए...
लेकिन हम हर बार ही बहुत पीछे छूट गए...
बुज़ुर्ग बताते हैं:
पहले यहाँ लोग खुद-ब-खुद चल कर आते थे
उनके कंधों पर उनके अपने नज़र आते थे
अब तो बुलाये हुए कुछ मेहमान से दिखते हैं
उनसे ज़्यादा तो उनकी चौकसी में तैनात जवान नज़र आते हैं
दूर बहुत दूर...बुलेट प्रूफ़ शीशे में,
हमारे प्रधानमंत्री कुछ लिखा हुआ सा बोलते हैं, और
अब तो स्कूली बच्चे ही तालियाँ पीटते हैं
हमें याद है ६० साल पहले
हमसे इसी जगह कहा गया था...
कि अब नीला आकाश तुम्हारा होगा, और
हमने समझा था, कि
अब किसी का दादा बिना दवाई के नहीं मरेगा
माँ हर रोज़ घर में खाना बनाएगी
चाचू को नौकरी मिल जायेगी
मुन्ना स्चूल जाया करेगा
मुन्नी अब बोझ नहीं समझी जायेगी
लेकिन आज़ादी के ये सपने देखते देखते
आँखें पथरा सी गयीं हैं
आज़ादी के चटख रंग धुंधला से गए हैं
हमरी ना मानो तो इन लाल पत्थरों से पूछ लो
जो 60 साल से कुछ कहते तो नहीं
पर, आह पर
चटक ज़रूर जाते हैं.
चिन्ता न कीजिये हम हैं सुनने वाले। बस हिन्दी में लिखते चलिये। स्वागत है आपका हिन्दी चिट्ठा जगत में।
ReplyDeletePriya Shekhar,
ReplyDeleteAapka Blog Aapki Tarah Hi Jitna Kehata Hai Usase Jyada Chhupata Hai. Ye Spashta Karen Ki Aakhir Ki Do Kavitayain Kisaki Hain. Hume Aapki Baatain Aur Vichar Sunane Me Jyada Dilchaspi Hogi.
Sabkuchh Ke Bawazood Koshish Kabil-e-Taarif Hai.
Shyam Anand Jha
Patthar to bolate hain lekin sunane wale bhi patthar ho gaye hain.
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